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|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
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<poem>
दिये का जलना
अभिमान नहीं है
(अँधेरा भगाने का )
बड़प्पन नहीं है
(प्रकाश फैलाने का)
दर्द भी नहीं है
(पीड़ा से जलने का )
यह एक सहज क्रिया है
जिसमें शामिल है तीन
एक आग जो जलाती है
एक बाती जो जलती है
एक माध्यम जो बहता है
दोनों के बीच

तुम आग हो
प्रेम माध्यम है
और मैं बाती
जलना सुखद है
दिये का मतलब ही है जलना
उसकी पहचान है यह

दिया बुझता कहाँ है
बुझती है आग
तुम न होते
तो ये सुख
नहीं होता मेरे नसीब में
एक बुझे दिये की पीड़ा से बचाकर
मुझे जलाये रखने के लिए
दिल से शुक्रिया मेरे मीत !
</poem>
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