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|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
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<poem>
मैं प्रेम में नहीं हूँ
मगर महसूस करता हूँ
अपनी सांसों में एक खुशबू
एक नन्ही सी जान ने जैसे खरीद लिए हों
गुलाबों के खेत के खेत
अनायास याद आ जाती है
कस्तूरी और कस्तूरी मृग की कथा,
इन्द्रधनुषी आकाश से उतर कर ईश्वर जब स्वयं
बढ़ा दे दोस्ती का हाथ
तब बेमानी हो जाती है
सारी बातें
मिलने और बिछुड़ने की,
दसों दिशाओं में किसी की ऐसी अलौकिक उपस्थिति
पहले तो कभी नहीं रही !

मैं प्रेम में नहीं हूँ
मगर काम करते-करते अचानक रुक जाते हैं हाथ
कोई इतना पास आ जाता है कि
पल भर को मन
बच्चा हो उठता है
उसे छूने की ललक में उठे हाथ
यन्त्र चालित से पहुँचते हैं
अपनी ही आँखों तक
आजकल ऐनक बार बार दुरस्त करते
रहने का मन होता है,
और आज से पहले...
अपने आँसू… कभी मोती नहीं लगे
न ही कभी हुई
उन्हें किसी के चरणों में चढ़ाने की
इतनी व्याकुलता !

मैं प्रेम में नहीं हूँ
मगर प्रेम शायद हो मुझमें कहीं
जैसे विष में भी छुपी होती है औषधि
शोधन… निरंतर शोधन से
संभव है औषधि का जैसे प्रकट हो जाना
वैसे ही शायद संभव हो सके एक दिन
मेरा अर्पण,
जिसे स्वीकार भी कर सको तुम… मेरे आराध्य!

माँ कहती है
भाव के घाव कभी नहीं भरते
प्रेम के भी अश्वत्त्थामा हुए हैं
जो कभी नहीं मरते…. !
</poem>
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