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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
रिसता भी होवै
फगत कागदी
ऊजळै गाभां में
हारता जूण री बाजी
बगत री थापां सूं
काळ रै धमीड़ा सूं
हो जावै बदरंग
अंतस में छापै
अनै लागै दरकण
कागद अर रिसता
एक टिल्लो फगत
बाढ़ देवै अर कर देवै मून
कीं नीं रैवै लारै
पड़या रैवै दोन्यूं
ऊंचै अटाळै में
बगत रै अटाळै में
जठै दोन्यां रो
कीं नीं होवै
अरथ अर मनोरथ।

</poem>
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