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म्हारी सूरत / मोहन पुरी

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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
म्हैं बार-बार
थ्हांकी बात अर उछाळा’प
ताळी देवतो रेवूं....।
म्हैं बार-बार
आभौ जीवता थकां
उणनैं ध्यावतो रेवूं....।
म्हैं बार-बार
जीवतो थकां बी अपघात कर लेवूं
तौ‘ई म्हारी सूरत‘प
किणी नैं तरस नीं आवै...।
फगत दया रो आसरो
मिलै... ईण आस में
हेरतो रेवूं
देवता, द्याड़ी अर देवरा।
अड़ौअड़ गैले चालतां
मिल जावूंला थ्हानैं
हर ठौड़, हर जातरा में....
अेक सूरत है म्हारी
जिणनै ओलख लो है
किणी अेक मिनख सूं...
म्हूं मिलूलां थांनै....बार-बार
हजार बार।


</poem>
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