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|संग्रह=थार-सप्तक-6 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
न्हाना-न्हाना आखरां री मींगणीं
गोळ-गोळ अर भूरी-भूरी
बिच्च-बिच्च में
हलंतियां री रेलमपेल
नीं दबै अर नीं ढबै
भोगै ई नीं बैठै
आं रा भाव भंडारा।

डांगरां रै बाड़ै में
ठाडा-ठाडा पोठां रै
भरियै बठï्ठळ तळै
भाषा री उळझाट में
कचरो भी अणथाग
आ ढिगळी दूर सूं दिखै
उठता-बैठता पंछीड़ा भी
आपरी पांती ई भेळ जावै
खार भरियोड़ी
बिरखा री कणियां सूं
सुंसाड़ा उपाड़ै सबदकोस
लागै सुर भी है आं में
एक बहर एक लय गावै
आ आखरां आळी ढिगळी।
इण बिचाळै
एक कूंपळ धतूरै री सी लागी
कोई पारखी देखी उण नै
बा लागी
गालिब रो मद छक्यो 'शेर'
किणीं नै मीर री कलावंती गज़लें
उण कविता अर गज़ल री
निकळण ढूकी कूंपळां
तो हरियल होवण ढूकी
सबदां री अकूरड़ी
अब तो म्हैं
थेप्पड़्यां अर बटोड़ां सारू
टाळयोड़ो गोबर भी
इणीज अकूरड़ी माथै न्हाखूं
म्हैं थरपणों चाऊं
सबदां री विराट अकूरड़ी
म्हारै ओळै-दोळै।
</poem>
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