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|संग्रह=थार-सप्तक-6 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
दो आखर लिखण सूं
परहेज इज ई राख्यो
तरसती रैई कलम
मन में उठता
भावां रा भतूळिया
उतरण खसता
कागदां माथै
कई बार साम्हीं आय
गांवता पड़तख
मन रै गळियारै
कदैई नीं पड़तो
सबदां रो काळ
जे लिख ई देंवतो
प्रीत रा दोय आखर
तो लिख ई देंवतो
पण लिखीज्या ई नीं
म्हैं फगत देखतो ई रैयो
फगत थांरो उणियारो।
</poem>
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