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जोहड़ो / हरीश हैरी

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|संग्रह=थार-सप्तक-6 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
तू याद कर
थारी भैंस्या जद
जोहडै़ सूं निकळ'र
नाळी आळै दरडां कानी भाजगी
मैं थारली लाठी लेय'र
भैंस्यां नै पाछी टोर'र ल्यायो
लडा़ई रै काम आंवती आ लाठी
आपां दोनां नै प्रेम में
पतो नहीं किंकर जोड़ दिया

आज भी
मैं जद कोई लाठी पकडूं
लाठी रै दूजै सिरै
थारो ई हाथ देखूं
एक सैंधी सी बोली
म्हारै कानां में गूंजै
म्हनै दिखै
भाजती भैंस्या,
हेला मारती तू
का पछै गाम रो जोहड़ो!
</poem>
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