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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
अंधारै-अंधारै जाग जाऊं
मसीन ज्यूं चालूं
नव बजियां री लोकल पकडूं

आखै दिन गोता लगावूं
फाइलां रै समंदर
चक्करघाण हुयौ

पकड़ंू फेरूं लोकल
आथडूं भीड़ में
थाकल बळद जिसी हालत
बावड़ंू घरै
टीवी देखूं
सोय जावूं
आ ही म्हारी जीवा जूण

फैरूं सुबै
वा ई लोकल
वा ई फाइलां
वा ई भीड़

म्हैं
कैवण नै तो मरद
पण असल में घाणी रौ बळद।

</poem>
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