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|रचनाकार=मोनिका शर्मा
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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
लुगायां कहती रैवै कै
अेक बार देखल्यां
पीर का रूंखड़ा
जद बै पूरो जीवण औरूं
देखबा री बात करै
फेर आवैं हेरा अर उठे अेक रळक
बै याद करै जद, बरसती बिरखा में
खेत की सींव कै सारै
रोपेड़ी अेक डाळी अर
गुवाड़ कै बीचूंबीच
ओरेड़ो अेक बीज
अब जिका रूंख बणग्या
बां ई रूंखड़ां री ओळ्यूं
कदै ना बिसरै लुगायां कै मन सूं
पीर आळा सींव सांतरा अर बाड़-गुवाड़ रा
रूंखड़ां री बानैं ओळ्यूं आवै
अर हिरदो बस आ'ई चावै कै
बठै जाय'र फेर बरस जावैं
बांरी आंख्यां री बादळ्यां
अर बां रूंखड़ां रा झिरता पानड़ां कै सागै
छंट ज्याय मन की सगळी पीड़...।
</poem>
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