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बड़लो / ओम अंकुर

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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
तळाव री पाळ माथै
खड़्यो जूनों बड़लो
बरसां सूं
कर रैयो
मिनखां री चाकरी

घणा ख्याल मांडणिया
हाथ्यां री जमातवाळा
अर घुमक्कड़ कडूंबा
इण री छियां तळै
करता बसेपो
गाडूलिया गांव सारू
बणावता रामचा अठै ई

बाळपणौ रमतो
टाबरां रै मिस
गांवठ्यां घणै नैगचारां
करायो ब्याव पून रै झकोरै
लुळती चीकणा पतांळा
गाभा पैर्योड़ी
लाजवंती पीपळी साथै

लरडिय़ां-छाळ्यां
इणरा खावती पत्ता
देवती आसीस

थाकणिया मेटता
आपरो थाकेलो
ठण्डी छियां में

बो ई बड़लो
मिनखा री निजर लागबा सूं
जीवतै जी फाटगियो
कागद री भांत
दो फाड़ हुयग्यो बड़

देख रैयो हो गांव
लागण लागी बोली
छूटी एक लाख माथै

रिपिया सारू
हुंवता दो फाड़
एक फाड़ अड्य़ो
कै म्हांका आडी मिंदर सिव जी रो
काम लैयस्यां रिपिया उणी ठौड़
तो बीजी फाड़वाळा बोल्या कै
म्हांका आडी बालाजी रो मिंदर
रिपिया लागैला इणी ठौड़
लड़ाई रै निरणै सूं पैली ई
बड़लो घबरायग्यो
जाणै कठा सूं उण रै
हिवड़ै में लाय लागगी

अर सांचा ई
धू धू करतो बड़लो
बळबा लाग्यो
गांववाळा नै ठा पड़्यो तो
कितरा ई कर्या जतन
खूब छाटयो पाणी पे पाणी
ट्यूबबेलां चलाई
दमकला सूं लाय माथै
काबू पाबा री
तरकीबां कीदी
पण कांई नीं हुयो।

बड़लो बळतो
नीं रुक्यो जाण बूझ'र
मिनखां रै आखै जीवण
करी चाकरी
पण बड़ला री इच्छा
कोई ई पूरी नीं
करी आखरी।
</poem>
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