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जड़ / ओम अंकुर

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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
ठैठ सूरज सूं ताप
बादळ सूं पाणी
अर माटी सूं उरवरा
लेय'र
जड़ राखै
दरखत नै उभौ
कितरी ई
करड़ी ठंड हुवै
का पड़ै बिरखा
घणी सांवठी
का पाछै लू रा
चालै थपेड़ा

जड़ दैवे
जिकी चोखी माड़ी
सभ्यता अर संस्कृति री
उड़ावै धूळ
म्हानै मिनख री आंख्या माथै
बिसवास ई नीं
का कै जिसी
म्हैं जड़ हूं
बिसो ई
मांणस ई आज कालै
बणग्यो जड़।
बंतळ
बंतळ
हुंवती
अणजाण सूं ई मोकळी

नानी रो मूंढो
नीं रैवतो हो
मुरझायेड़ो
कैवतो हो
दरखत
लोक री गाथा

जोबन मुळकतो
बटावू नै निरखतो
अब बगत बीतग्यो
मिनखपणो रीतग्यो

बंतळ तो हुवै आज ई
पण फेसबुक अर वाट््सअप माथै
फेस टू फेस
बैठणै री
कुण पाळै हूंस

दरखत रा हिया नै ठंडक
भर्यां बांथां
बंधावै सुखद भविस री आस
जड़ खुद भौम रै
घणै अंधारै में कैद हुय'र
दरखत रा नैणां नै
संसार रा दरस करावै
मन ई मन हरखावै
गुमेज करै कै
म्हैं कितरी भागवान हूं
कै म्हारै स्हारै
माणस अर जिनावरां री
सांसा चेळकै

घालै घूमर
जिण पाण
म्हारा पगल्यां री पायल करै
रुणक-झुकण
रुणक-झुणक
जिण नै सुण'र
मोरिया नाचै बागा में
कोयलड़्यां गावै रागां में

म्हारै इण भांत
हरख नै निरख
मिनख ई राजी हुवै
पण उण री दीठ
उण रो राजीपो
म्हारै काळजा माथै
चुभावै तीखा सूळ
मिनख ई तो है।
</poem>
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