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दो फाड़ / ओम अंकुर

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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
मनखाजूण रा
सगळा उळझाड़
राग-रमाण
आयग्या म्हारै ई पांती

जाणै कठै सूं डोलता-डोलता
नित उठ
बम्म-पटाखारी भांत
अबखायां
कानां में करै भड़भड़ाट
फेरयूंई इणा रै पछै
हरख रो एक टुको
जाणै कठै सूं
चाणचक म्हैं पा लेवूं हूं
पछै इचरज सूं
राजी हुयÓर
उण टुका नै
भर लेवूं बांथां

अंवेर लेवूं
ओळ्यूं रै
सतरंगी सोरम रै झरोखां में
कदै-कदै मैं
कबीरी ठाठ री
टोकी माथै पूग'र
विचारूं कै बो टुको
घणो मोटो
अर लाम्बी उमरवाळो हुय'र
हुवै क्यूं नीं थिर।
बीजै क्यूं नीं
मिनखां रै हियै
हरख रा बीज।
</poem>
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