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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
फूटरी फरी
जूण नैं रुळायां बगै
धरा-धूड में रे बावळा बटाऊ

कीं पांवडा तो मे'ल धक्कै
थोड़ो सो ई सरी
भेळो तो कर आतमबळ
कर हेलो दसूं दिसावां नैं
ताकड़ी रै तोल
मिल्या है मूंघा
मोती सा खिण
जिका बगायां जावै
सुगन-सिरधा रै डर सूं

अडिग अर काळजै आळा
मिनखां ई बदळी है
बगत री अटल दिसावां
ओ जाणतां थकां ई
थूं डरपै बावळा
पग उठा, चाल
आपां आभो मिणां।

</poem>
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