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बातां / अशोक परिहार 'उदय'

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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
बातां में हुवै पुळ
जणांई जुड़ै
मिनख सूं मिनख
बातां में ई हुवै मायनो
मिनखपणैं रो

बातां में
बाढï्यां बावळ
बात बणै नीं सावळ
बात ई रुवावै-हंसावै
बात सूं ई बदळीजै
जग रो ढंग-ढाळो
पछै बातां सूं
क्यूं कोई रो
काळजो बाळो?
</poem>
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