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कूओ / ओम पुरोहित ‘कागद’

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|संग्रह=भोत अंधारो है / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
तरक्की रै खांवां चढ
म्हे गांव छोड
अंगै धार लियो सैर
कूओ पण सांभ्यां बैठ्यो है
महारै पुरखां रा ऐनाण
उणां रै होवण री साख
आपरी पाळ माथै
पड़ी ई होवणीं है
पुरखां रै हाथां छूट्योड़ी
एक आध डोलची
पिंदै में कूवै रै
जिण नै लगायां बैठ्यो है
काळजै
कूवै नै पण सांम्भै कुण!
</poem>
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