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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
पाणी री बारी ही
कालै रात
नौ सूं बारह
हाथ में कस्सी लियां
भाजतो रैयो
नहर सूं खाळै
खाळै सूं खेत तांई
नक्का-बंधा संभाळतो।

बगत पूरो हुयां पछै ई
कोनी गयो ढाणी
कींकर जावतो
अंधारी रात में
सूनी छोड़'र
अेकली नहर नैं।

पड़्यो रैयो पटड़ै माथै
दिनूगै सुरजजी री साख में
पंखेरुवां नैं भोळायी
नहर री आंगळी झलायी
अर नचींतो सोयो
ढाणी में
हांडी बगत तांई।
</poem>
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