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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
कित्ती बार लुळ्यो हूं
सीधी रेखा सूं
पैंताळिस डिग्री तांई
बात-बेबात
करी है डंडोत
कदी जीवणै सिरक्यो हूं
कदी डावड़ै
कदी नवायो है सिर
कदी मींची है आंख्यां ।

स्सो कीं जाणतां थकां
अणजाण बणणै री हथोठी
भोत ओखी सीखी है
हियै सूं उठता हरफां नैं
रोक्या है होठां आवणै पैलां
कानां नैं सिखायो है
फगत मतळब री सुणणी बात
कित्ती-कित्ती बार।

चाळीसै चढतां अजै तांई
कीं कोनी कर्यो मनचावो
जीयाजूण री जोड़-बाकी में
कित्तो नाच्यो हूं
दूजां रै मन-माफिक।
</poem>
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