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घुळगांठ / मदन गोपाल लढ़ा

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<poem>
तो कांई कैवै हो म्हैं...
म्हैं कैयो
पण कांई कैवै हो
नीं बां नैं चैतै
नीं म्हनैं
छेकड़ अधबिचाळै ई
छूटगी बात।

बियां जद
कोनी रैयो
कैवणै-सुणणै रो कोई मतळब
सार ई कांई है
कैवा-सुणी में
फगत जबान हारणी है।

इणींज डर सूं
म्हैं धार लीवी मून
कैवणो टाळ'र
मन रै खूंणै
काठी दाब लीवी बात।

इण अबखै बगत में
जद बात उळझ'र
बणगी घुळगांठ

सोध्यां ई नीं लाधै
बात रो सिरो
कींकर सुळझै
ओ उळझाव।

कवीसरां
कांई कैवो आप...?
</poem>
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