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चकारिया / मदन गोपाल लढ़ा

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दादीमा कैवता- मारग माथै चालतां ध्यान राखणो, चकारियै में नीं आ जावै पग। कुण जाणै कांई अला-बला हुवै।
चौरावै माथै लोग करै टूणां-टसमण गिरह उतारण सारू। बेबगत घर सूं ई नीं निकळणो। जे निकळणो ई पड़ै तो गेलै सूं नीं टळणो।
उण बगत टाबर हो म्हैं। रैवतो टाबरां भेळो। आखै दिन रमतो गवाड़ में। भाजतो-फि रतो सारै गांव में।
जूनी बात है आ। दादीमा नैं सौ बरस कर्यां हुयग्या केई बरस। अबै बगत बदळग्यो। म्हैं ई गांव री गळ्यां छोड़'र सहर आयग्यो। टाबरिया रमै म्हारै आंगणै। अठै चौगड़दै तकनीक रा जै-कारा गूंजै। आजकळ रा टाबर अैड़ी बात सुणै ई कोनी, मानणै री तो छोड़ो।
पण थमजो, अजै बाकी है कविता। चकारियां सूं भर्योड़ो है आज जूण रो मारग। भांत-भंतीला चकारिया। न्यारै-न्यारै रंगां रा। केई छोटा तो केई मोटा। चमकणा लेबल लाग्योड़ा। देखतां ई आख्यां नैं खींचै। जे भूली-चूकी ई किणी चकारियै में पग पड़ जावै तो अैड़ा उळझो कै बारै कढणो ई मुस्कल। बालपणै री अला-बला सूं बेसी दोजख है आं में। हरेक चकारियै री आपरी डफली है अर आपरी राग। गावणियां ई चाक चौबंद। जे सगळा भेळा गावण ढूकै तो साग-भाजी री मंडी जैड़ी हुय जावै दुनिया।
घणो दोरो है आं सूं बचणो। आं रै जाळ सूं टळणो। आं सूं कडख़ै रैवणो। मारग माथै चालणो ई हुयग्यो अबखो।
भळै चेतै करूं दादीमा नैं। सांची कैवता दादीमा, बेबगत घर सूं ई नीं निकळणो। जे निकळणो ई पड़ै तो गेलै संू नीं टळणो। मारग बगतां ध्यान राखणो, किणी चकारियै में नीं आ जावै पग।
</poem>
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