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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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<poem>
मासूम गुल ने हँस के देखा तो तमाशा हो गया।
हर तरफ़ ख़ुशबू बिखेरा तो तमाशा हो गया।

अपना पराया देख करके जख्म नापा जा रहा,
वो दूसरों का मामला था तो तमाशा हो गया।

आजा़द पंछी को दबोचा कै़द पिंजरे तें किया,
फिर आ गये एहसान फ़र्मा तो तमाशा हो गया।

जो सियासत चल रही है सब हमें मालूम है,
दिल खेालकर रोना जो चाहा तो तमाशा हो गया।

जब ज़रूरत थी किसी ने हाल तक पूछा नहीं,
जब मेरा निकला जनाज़ा तो तमाशा हो गया।
</poem>
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