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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
गिरवी रखे हुए घर
और बिकती ज़मीनों पर
एक बुत रखा गया है
खानाबदोश हो चुके लोग
प्रेम में हैं शायद

प्रतिदान में स्वीकृति की प्रत्याशा लिए
एकटक देखती हैं कई जोड़ी आंखें
उठी गर्दन झुकते ही
सहज हो जाती हैं पलकें

सदियों से बुतों के पास
केवल मन था
सपने थे
कंठ में स्वर नहीं था
और तेवर में बगावत नहीं थी
बुतों के हिस्से में आए
झुके लोगों के लिए
बुत बने रहना
बुतों का सजदा है

बुतों के सीने में दिल होता है
जबाँ नहीं होती !

</poem>
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