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|संग्रह=इज़्ज़तपुरम् / डी. एम. मिश्र
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<poem>
शिथिल परम्पराओं
को तोड़ना
क्या पाप है?
ग्रंथियों से
बाहर निकलना
अभिशाप है?

संस्कृति के
टूटने का ख़तरा
बार -बार
करमू के
जमे ख़ून को
कचोटता है

क्या अब
बेटी के
नाज़ुक कंधों पर
दायित्वों का
बोझ हो?
क्या वह
वहन कर पायेगी?

क्या वह
अजनबियों के
सम्मुख फैलाये
कटोरे जैसे हाथ
कैसे कल पीले होगे?
</poem>
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