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मुआर / रामनरेश पाठक

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<poem>
सतनदिया तट के कई खेत
सूखा आया, जल गए,
कमर पर फूटते पौधों के समेत
जाने कितने किस ठौर, किधर
किस साईत में अपराध हुआ
पानी चटका, आहर सूखा,
विधना ने जीवन लूट लिया,

हल-बैलों का सब श्रम उजड़ा
दंवने-मंजने का क्रम उजड़ा
उजड़ी पनछन्ने की कुटिया
जिसमे साँझा को दीप जला जाती
रमरतना की बिटिया
बरतन, भांड़े गहने, गुड़िये,
सब बिक गए, जल गयी सवा सौ आशाएँ
सौना बिका, केला बिका,
काड़ी बिकी, बछवा बिका,
रो रही दुलरिया, मुनिया, बुधना, सोमरा वह
जिनकी कमीज़ जल गयी नयी औ'
जला करेगा सालों भर जिनका छोटा-सा बड़ा पेट
सतनदिया तट के कई खेत
सूखा आया, जल गए, कमर पर फूटते पौधों के समेत

खेतों में डटा मुआर,
रो रही है दक्खिनी बयार,
सिसकता शरत, शरत ही नहीं शिशिर की वो जुम्हाई
सिसकते खेत, मूक वह परछाई
धुंधली... धुंधली बनती
मेड़ों पर आँखें पथराई
खेत उखड़ ही गए
न रब्बी की गयी बुवाई
पत्थरी खेत में दुखे पाँव
उनके जो रखते एक दाँव
फूली खेसारी, तीसी, बोने वालों के
हिम्मत की सौ-सौ बलिहारी !!!

हो चली धूप कुछ नरम,
और बदली के बिछुडन से
नीला हो चला पूर्ण वह आसमान
चाँदनी रात में जिया सालते हैं
सपनों की उजली भरी राख से
योगी बनते कई खेत
सतनदिया तट के कई खेत
सूखा आया, जल गए,
कमर पर फूटते पौधों के समेत.
</poem>
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