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भीख नहीं / रामनरेश पाठक

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<poem>
भीख नहीं मैं माँग रहा
यह तेरी जयजयकार
चिकनी काली उखड़ी रुखड़ी
सडकों पर मैं जेठ माघ में
शीत घाम में
सावन भादो की झमझम में
खड़ा अदा चलता फिरता
घसीटता अपने को हूँ हार हार
रहा मनाता जय मैं तेरी
सदा दबाये अंतर का हूँकार

किया सलाम दुआ दि तुमको
तेरे बच्चे बीवी धन लक्ष्मी की
सदा मनाई जय जब मैंने,
गाल दे दि, थप्पड़ मारा, थूक दिया,
मुँह फेर लिया,
मोटर दौड़ा दि हँस कर तुमने
बज रहा तुम्हारे यहाँ लाउडस्पीकर
आ रही सुरैया, लता, रफ़ी, की बेंचें टेंटें,
पूज रहे हो सरस्वती को !

पाने चला प्रसाद तुम्हारी उस देवी का !
दे दो मुट्ठी में भरकर दो बेर, चंद लड्डू के दाने,
देख, झपटकर उठा लिया तब उन डीशों को,
जो पार्स थे बाबू, धनवानों, विद्वानों,
कई यानों को

तेरा कुत्ता पास खड़ा था
छीन लिया उस रिक्त डीश को
क्योंकि उसने दूध पिया था !!\!
मैंने पोंछ पसीना खैर मनाई तेरी,
तेरी सरस्वती की
चखने को थी मिली आज वह कृपा तुम्हारी
दया और करुणा की मीठी डिश तुम्हारी !!!

राजपंथ से सटे पाठ पर
पड़ा हुआ मैं सुनता जाता,
बोल रहा है कोई लीडर
अन्न समस्या सुलझाने की बात
सहसा उठती लपटों को तब दबा लिया,
क्योंकि भूख से निकली जाती थी
मेरी वह आंत
खड़ खड़, पों पों, टी टी की गर्वाली धुन में
दबती जाती मेरी करूण पुकार
भीख नहीं मैं माँग रह,
यह तेरी जय जयकार
मैं जीवन के लिए निचोड़ता
सदा देह की पात,
तुम निचोड़ते हो जीवन को इसीलिए तो
बीत जाएँ आराम चैन से दिवस और
कुछ रात

पत्थर की देवी, पत्थर का राम पहनता
रेशम पीत, पीताम्बर, पशमीना,
सोना, चांदी, हीरे मोती का
वह मणि गुम्फित हार

</poem>
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