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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=इज़्ज़तपुरम् / डी. एम. मिश्र
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
एक काँटा भी
ठीक से था
जमा नहीं
पसली में
कमजोर मछली
जाल में आ फँसी
और हो गयी मंडी की
फिर कौन देखे
देह की भूख
और तृष्णा के सम्मुख
मन के भीतर
रचे-पगे उसके
महके संसार को
शिकारी को
कुल दिखे
एक जून का गोश्त
</poem>
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|संग्रह=इज़्ज़तपुरम् / डी. एम. मिश्र
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एक काँटा भी
ठीक से था
जमा नहीं
पसली में
कमजोर मछली
जाल में आ फँसी
और हो गयी मंडी की
फिर कौन देखे
देह की भूख
और तृष्णा के सम्मुख
मन के भीतर
रचे-पगे उसके
महके संसार को
शिकारी को
कुल दिखे
एक जून का गोश्त
</poem>