भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मँझला कका से
कई बार भिड़ चुके हैं बाबूजी
'रस्ता कैसे नहीं छोड़िएगा!'
बड़की काकी की बात
आग में देसी घी
पड़ोस की दादी
तीनों घर पीती है चाय
'इहो होता है, रास्ता न छोड़ेनीड़; बिनु निकास कैसा!'
उधर-
'बाउ देखिए, जेठ-छोट का
थोड़ा भी लेहाज है
रस्ता के लिए ज़मीन छोड़िएगा तो
आपके मकान का पूरा नक्शा ही न बिगड़ जाएगा!'
बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने
'पिता के बाद तुम लोगों को
पाल-पोसकर बड़ा किए
पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए
क्या-क्या नहीं सहना पड़ा...''इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़करचले गए पच्छिम भर...'मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं-'पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref>फिरे काहे का बड़प्पन।'
फुसफुसाए बाबूजी
सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ
झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया!
हवा में पसर गई है
असंतोष की धुआँइन गन्ध
फनककर बोल गए हैं बड़का कका-
सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं
तुम लोग लेना बाप का...
हम सभी पितिऔत<ref>चचेरे भाई</ref>