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<poem>
मिट्टी
नदी के कछार की
लाया है वह....
अपनी औरत जैसी
फूस की एक आकृति बंधेगा
और उस पर ममता का विलक्षण रूप
चढ़ाएगा
कछार की मिट्टी
प्रकाश पुंज बनेगी...
उत्सव का केंद्र
और चार दिनों बाद
फिर होगी
नदी के हवाले
यूँ ही हर बार
हर उत्सव पर
उसी नदी से
वही मिट्टी निकाल
अनुष्ठान के अनुकूल
एक आस्था की आकृति बनाएगा
फिर
धूमधाम के उपरांत
उसे तिरोहित कर देगा
उसी नदी की धारा में
जैसे यह नदी नहीं
हमारी रीतियों का पिटारा हो....
(बुरा लगा ? चलो ऐसा कह लें-)
हमारे विश्वासों की सूत्रधारिणी हो....
</poem>
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