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<poem>
कठिनतम से सरलतम होने के स्वांग में
मैंने आधी दुनिया से मुँह मोड़ लिया.

त्याग दी वस्त्रों की गरिमा तुम्हारे सामने.
मध्यरात्रि में निद्रा के नियम का उलंघन किया.
उंगलियों की बत्तखी भाषा सीखी.

और हुआ ये
कि पाप के प्रथम क्षण में ईश्वर को नकार दिया.
गुजर जाने दी एक अदृश्य हवा अपने आर-पार.
लगभग खंडित करती हुई मुझे.

सम्भोग की एक कठिन मुद्रा को
अराजक भावों से मुक्त करने की कोशिश में
मैं अपने बचपन में चली गई उस क्षण.
उस क्षण
जब मैंने पहली बार पढ़ा था अमृता को.
उस क्षण
जब पहली बार मुझे नापसंद हुआ था घर से बाहर निकलना.

हम फासले पहनते हुए
दांतो से काटते गये एक दूसरे के जीवित मांस को.
ताकि शेष रह सके जीवित.
ताकि हो सके अबोध.
तारों के सोने के बाद.
शिशुओं जैसे.
</poem>
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