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<poem>
तुम जब
जानना चाहते हो
मेरी उम्र की ऊंचाई
पूछ बैठते हो
किस तरह, इतने बसंत ???
मैं नहीं दिखा पाता तुम्हें
मेरे अंदर
पतझड़ का झड़का
किसी भी पत्ते का संहार

तुम जब
जानना चाहते हो
मेरे रहस्यों की गहराई
गिनते हो मेरे अवसाद
सुनने से अधिक बुनते हो प्रमाद
मैं नहीं जता सकता तुम्हें
अपनी जड़ों की जिजीविषा पर
एक भी प्रहार

तुम जब
जानना चाहते हो
मेरी परिधि, मेरे वृत का आकार
गणना करते हो, त्रिज्या का आधार
मैं मोल कर औपचारिकता, शिष्टाचार
कहता हूँ
तुम्हारी धारणाओं के अनुपात मे, सरकार
तुम्हारी जिह्वा के स्वादानुसार... ... .... !!
</poem>
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