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चौराहे पर लाश / नाज़िम हिक़मत

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<poem>
एक लाश पड़ी हुई है,
उन्नीस साल के नौजवान की लाश,
दिन दहाड़े सूरज की रोशनी में,
और रात में सितारों के नीचे,
इस्ताम्बुल के बेयाजित चौराहे पर.

एक लाश पड़ी हुई है,
एक हाथ में कापी,
और दूसरे हाथ में वह ख्वाब थामे
जो शुरू होने के पहले ही टूट गया, 1960 की अप्रैल में,
इस्ताम्बुल के बेयाजित चौराहे पर.

एक लाश पड़ी हुई है,
बन्दूक से दागी गई,
गोली का एक जख्म
जैसे कोई लाल कारनेशन उसके माथे पर,
इस्ताम्बुल के बेयाजित चौराहे पर.

एक लाश पड़ी रहेगी,
बहता रहेगा उसका खून धरती पर,
जब तक उठ नहीं खड़ा होता मेरा वतन
और जबरन कब्जा नहीं कर लेता चौराहे पर
हथियारों और आजादी के तरानों के साथ.
मई 1960

'''अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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