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[[Category:तुर्की भाषा]]
<poem>
पचासों हजार उपन्यासों और कविताओं में पढ़ा है
गिरती हुई पत्तियों के बारे में
पचासों हजार फिल्मों में देखा है पत्तियों को गिरते हुए
पचासों हजार बार गिरते देखा है पत्तियों को
गिरते, उड़ते और सड़ते
पचासों हजार बार महसूस किया है उनकी बेजान शुश-शुश की आवाज़
अपने क़दमों के नीचे, अपने हाथों और उँगलियों के पोरों पर
मगर अब भी मैं अभिभूत हो जाता हूँ गिरती हुई पत्तियाँ देखकर
खासकर सड़क पर गिरती हुई पत्तियाँ
खासकर शाहबलूत की पत्तियाँ
और अगर आस-पास हों बच्चे
अगर निकली हो धूप
और कोई अच्छी खबर मिली हो मुझे दोस्ती के बारे में
खासकर अगर दर्द न हो मेरे सीने में
और भरोसा हो कि मुझे चाहता है मेरा प्यार
खासकर ऐसे दिन जब मैं बेहतर महसूस करता होऊँ लोगों के बारे में
मैं अभिभूत हो जाता हूँ गिरती हुई पत्तियाँ देखकर
खासकर सड़क पर गिरती हुई पत्तियाँ
खासकर शाहबलूत की पत्तियाँ
६ सितम्बर, १९६१
लीपजिग


'''अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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