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उन कस्बों मेमें
कठपुतलियों को नाचते-गाते देखते सुनते, हम पले-बढ़े
हमने किसी डोर, अदृश्य कंठों और वाद्यों को कभी नहीं ढूंढा
हम देखते रहे, एक समूचा संसार, बाइस्कोप मे में सिमटा हुआकभी नहीं ढूढ़ेढूँढे, कोई प्रमाण, साक्ष्य हमने, उसके मानचित्र पर
हम शब्दों का मर्म, सूत-सूत कातते रहे
हमने नहीं साधा कभी, किसी ऋतु पर संधान
हम मे में बादलों की थिरकन पर, थिरकता रहा नृत्यपावस और पत्तों की सरसरहाट से हम मे में रचते रहे संगीतहम सूरज को पश्चिम मे में कटती पतंग समझते रहे
ले आते रहे पेड़ पर अटका चाँद, रात को लूट कर
हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल मन
एक जरा ज़रा सी खोंच पर, जो
सिलाई-सिलाई उधड़ जाता
हमारी आँखों ने अस्वीकार दिया, कुछ भी अनचाहा
उन कस्बों मेमें, हम मीठी नींद तान कर सोते
हम नहीं जागना चाहते अब, किसी अजानी शैय्या पर
हम अब नहीं जानना चाहते, मानना कुछ भी
हम नहीं पहचानते जिसे, हम नहीं-नहीं पहचानते !!.
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