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निर्झर गीत / राकेश पाठक

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<poem>
फैले हैं इन्द्रधनुष/से आँगन में
ये नदियाँ, पवन , गगन, सितारे
समेट इनके एहसासों को
गीत नया तू गाता चल

बादल बन अम्बर को छूलो
कभी बरखा बन धरती को चूमो
इस रुखी सूखी, बंजर धरती को
हरियाली का गीत सुनाता चल
गीत नया तू गाता चल

सृजन से कोख हरी हो जाये
ऋतुओं के इस स्वयंवर में
रचे-बुने कुछ स्वप्नों को
अविरल अन्दर से बह जाने दे
ख़्वाब सुनहरे पूरे हो जायें
गीत ऐसा तू गाता चल

उम्मीदों के पंख फैलाए
स्वच्छंद थोड़ा सा उड़ने दो
बुझी-बुझी सी इन पिंडो को
जगमग सूरज सा होने दो
कम्पन हो जाये कण-कण में
गीत अविरल तू गाता चल

सात सुरों से बनी रागिनी
बनकर अपनी चाँद पूरंजनी
छेड़ जीवन में वैदिक मंत्रो को
राग भैरवी गाता चल
मंत्र यूँ ही गुनगुनाता चल

तू ठहरी खुशबू का झोंका
मै पगला भंवरा ठहरा
तू ठहरी मदमस्त पवन
मै बावला बादल ठहरा
जीवन के इस पतझर को
बूँदों में घुल जाने दो
झरनों सा निर्मल निर्झर
गीत नया तू गाता चल

माँग रहा ख़ाली दामन में
हे चाँद! थोड़ी शीतल चाँदनी दे दे
मिल जाये साँसों को संबल
अमृत गंगा सा पानी दे दे
खिल उठे मन का कोना-कोना
ऐसा गीत तू गाता चल
कुछ सरल संगीत सुनाता चल.

</poem>
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