भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राकेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
याद है तुझे? जब पहला ख़त भेजा था मैंने

हाँ,
तब भी क्या समय था
तेरे शब्दों और ख्यालों में ही तो जीता था मैं

कितने ही पत्र लिखे मैंने
विनती कर कर थक गया था मैं
पर तुम कहाँ सुनती थी

पर आज देखो न
साथ हो तो लग ही नहीं रहा
कि तुम (वही) हो
कैसे झिड़ककर चल देती थी तब "माय फूट" कहकर

आँखों में नमी लिए
उदास-सा फिर कुछ लिखने लग जाता था मैं
एक आस के साथ

जानती हो?
तुम्हारी माय फूट कहने का जो अंदाज़ था न
उफ़्फ़!

गुस्सा दिखाते हुए
जब पैर पटक कर,
झिड़कते हुए तुम निकल जाती थी
मैं गीली आँखें लिए तड़प उठता था
सच कहूँ तो तुम्हारा "माय फूट" कहने की जो अदा थी न
उसी से मुझे प्यार हो गया था

यह सुनना कि फिर कुछ लिखकर पकड़ा देता था "नीरू" को
मनुहार मान के साथ दे देना उसे

मेरी आँखों की नमी देखकर वो भी मना नहीं कर पाती थी

पर तुम भी न कितना अभिनय करती थी
पहले पूरा पत्र पढ़ना
पढ़ते ही तेरा "हूँ" करके पैर पटकना

तुम्हें कैसे पता यह सब?

नीरू ही तो बताती थी यह
यही वो बात थी
जिस से मुझे लगता था
कि कहीं न कहीं कुछ तो अंकुरित हो रहा है मेरे लिए

अच्छा!
जब प्यार नहीं था तो मेरे पत्र पढ़ती क्यों थी?

जानते हो
आज पहली बार कह रही हूँ तुमसे
सचमुच में मैं तुमसे प्यार करने लगी थी
तुम्हारे शब्द भी न
उफ़्फ़ बेबस कर देते थे मुझे
और यही मैं नहीं चाहती थी कि बेबस सी दिखूँ किसी के समक्ष
पैर पटककर निकलना अभिनय मात्र नहीं था
मेरे वज़ूद को लील जाने वाला मेरा अहं था
मेरे अहं मेरे गुरुर का कारण ये पुरुष ही तो थे
उनकी निगाहों की टकटकी से उपजा हुआ झूठा दर्प
इसे मैं अब समझ पा रही हूँ

पुरुषों का ऐसे एकटक देखना मुझे अच्छा लगता था
इसके बिना कहाँ मैं...?
कोई देखे न तो बेचैन हो जाती थी
मुझे लगता था मेरे इर्द-गिर्द ही तो दुनिया है इन पुरुषों की
पागलपन की हद तक तड़पते देखना चाहती थी मैं इन्हें
पर तुम्हारे भेजे ख़त उनमें लिखे शब्द ऐसे थे कि मैं बेचैन हो जाती थी
मेरे अहं वज़ूद के निष्कर्षण के ध्रुव थे वे शब्द!

पर आज कहूँ नरेन!
शायद तुम मेरे लिए ही बने थे
तुम न होते तो मैं भी न होती

तुम,
तुम हो
और मैं,
मैं
यही कहा करते थे न
पर तुम न होते
तो हम भी न होते

अब मैं इसलिए हूँ
कि तुम हो
टूट कर कहाँ कोई जी पाता है किसी से
साथ छोड़कर कहाँ कोई जा पाता है कभी
यादों को पकड़े रहते है साथ-साथ
जीवन भर
साँसपर्यन्त

फिर एक समय आएगा
जब न तुम, तुम रहोगे
और न मैं मैं रहूँगी
मैं होना
अहं का होना है बस
पर हम होना
सब होना है

जीवन चक्र के अगले चरण की एक कड़ी.
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
2,956
edits