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कठिन दिन / जया पाठक श्रीनिवासन

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सपनों की नदी
तिरती है पास से
एक कठिन दिन
जलता है
रेत के किनारों पर
आती जाती छुअन लहरों की
अनायास छेड़ती
छोड़ती शैशव के गीले छाप
बढ़ता जलता दिन
वाष्पित कर देता
तुरंत उसे
जैसे लगी हो होड़ कोई
एक तरल
और एक ठोस के होने में
मैं चलता हाँफता
जलती रेत पर
गलता हुआ
किनारे वाली नदी
हँसते मुझपर
मैं खड़ा होता
नदी में पाँव धंसा
तो रेत उड़ाती
मज़ाक पौरुष का
हतप्रभ हूँ
कैसे पाँऊ खुद को
कि यह नदी गति है मेरी
और यह तपती रेत
मेरा मार्ग
यह दोनों ही तो हैं केवल
मेरे मनुष्य होने का प्रमाण
सुनो,
तुम्हारे धामों तक क्यों जाना?
संभव हैं इन से ही
वैतरिणी तक का संधान!
</poem>
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