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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
आज तक किसी के भी नाम अर्पित
अतिरेक की व्यंजनाएँ
किसी की मृत्यु को कम नहीं कर सकीं
अब अन्य अतिरेकों का प्रयोजन
प्रश्न-सा प्रतीकित होता है
मनुष्य ने जिन प्रश्नों की तालिका को जिया
वह इतिहास को अर्पित है
व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के ट्रेडमार्क
परिषदों, गोष्ठियों, संस्थाओं की
उपयोगिता हैं-
पिछली कई सभ्यताओं की तरह
वणिक बुद्धि पार्थिव संज्ञाओं की करती है कमाई
तटस्थता कितना गुरुतर अपराध है!
प्रश्न शेष रह ही जाता है तब भी
समाज, इतिहास, सभ्यता, संस्कृति की मृत्यु को
कम कैसे किया जाए
या फिर स्वयं को ही मार दिया जाए
इस वातावरण में
</poem>
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