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केवल तुम / रामनरेश पाठक

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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
बहुत गहरा अकेलापन था
आँखों में उदासी थी
आदिम वन की
गढ़े गए थे तुम

संसृति-विस्तार की कृष्ण चुडाओं को छूकर
कोमल पाँव आगे बढ़े थे
सारे सपने रेखाओं में सिमट गए थे

बहुत गहरा अकेलापन था
आंखों में निर्वेद था
आदिम मन का
गढ़े गए थे तुम

संस्कृति-फैलाव की रक्त लय को छूकर
साँसें आगे बढ़ी थीं
सारे संयम होठों से फूटते झरनों में सिमट गए थे

बहुत गहरा अकेलापन था
आँखों में अपरिचय था आदिम तन का
गढ़े गए थे तुम

सभ्यता-विराम की इड़ा-सीमा को छूकर
कुछ ऊँगलियाँ आगे बढ़ी थीं
सारे रतन पाँवों में सिमट गए थे

प्रश्नों उगे थे
अंधकार के फूलों के लिए
विरागी यौवन के मधु के लिए
त्याग की घाटी में मूर्च्छित विलास के लिए

केतकी फूलों के लिए
उजाले की मालाएँ हँसी थीं
स्वागत में
एक तांडव का मृदंग ताल
अणु-अणु में उच्छलित था
वासनाएं लक्ष्मण-रेखा पार कर गई थीं

मेज़ों पर हँसते हुए
हाथों के पुल बनाने वालों के नाम था संदेश
माध्यम कोई नहीं था

डायरी में लिखा
कहीं कोई नाम नहीं था
कोई रुप नहीं था
कोई कुल, गोत्र, उपाधि,
आदि, मध्य, अंत नहीं था
केवल तुम थे
</poem>
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