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|संग्रह=मैं अथर्व हूँ / रामनरेश पाठक
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<poem>
मैं दिशाहारा अकम्पित.
सामने फैला हुआ है
मरीना का एक आँचल-खंड!
मत चुनो, ओ आसवी!
यह रेत, सीपी, शंख
रेत चन्दन नहीं है
उपलब्धियाँ सीपी नहीं हैं
शंख मंगलध्वनि नहीं उच्चारता है अब.

मत बनाओ तुम घरौंदे बालुका के
मत लिखो आँचल किनारे नाम प्रिय का
यह मरीना का अश्रु-भीगा एक आँचल-खंड.

मत चुनो यह धन
आँचल पर छितरते रेत, सीपी, शंख!
इसे पीड़ित मत करो तुम
घरौंदे का खेल, प्रिय का नाम, इसको रुला जायेंगे.
यह शेष आँचल-खंड
सागर-दैत्य जाएगा निगल.
मैं पिता ऋषिपुत्र
दिशाहारा, मंत्रहारा, सर्वहारा
क्या करूँगा तब ? क्या करूँगा ?
चलो,
चलो कुल को लौट
</poem>
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