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{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
}}
दिन दहाड़े सूरज की रोशनी में,
और रात में सितारों के नीचे,
इस्ताम्बुल इस्ताम्बूल के बेयाजित चौराहे पर.पर।
एक लाश पड़ी हुई है,
एक हाथ में कापी,
और दूसरे हाथ में वह ख्वाब ख़्वाब थामे जो शुरू होने के पहले ही टूट गया, 1960 की के अप्रैल में, इस्ताम्बुल इस्ताम्बूल के बेयाजित चौराहे पर. पर।
एक लाश पड़ी हुई है,
बन्दूक से दागी दाग़ी गई, गोली का एक जख्म ज़ख़्म
जैसे कोई लाल कारनेशन उसके माथे पर,
इस्ताम्बुल के बेयाजित चौराहे पर. पर।
एक लाश पड़ी रहेगी,
बहता रहेगा उसका खून ख़ून धरती पर,
जब तक उठ नहीं खड़ा होता मेरा वतन
और जबरन कब्जा कब्ज़ा नहीं कर लेता चौराहे पर हथियारों और आजादी आज़ादी के तरानों के साथ.
मई 1960
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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