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कोहरा / राजीव रंजन

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साँसों को अपने में घोल रही है।
साँसों के साथ अब वह हमारे
अन्दर प्रविश्ट प्रविष्ट हो रही है।
और जैसे हवा में नमी घुलती है,
वैसे ही हमारी आत्मा को अपने में घोल,
जो कोहरे के चक्रव्यूह को तोड़ हम
तक आए।
वर्शों वर्षों नहीं सदी बीत गयी उस
प्रकाश के इंतजार में।
और अभी सदियों का और लम्बा
इंतजार बाकी है, क्योंकि अब कोहरा
और ज्यादा घना हो गया है।
 
</poem>
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