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वे इस पृथ्वी पर / भगवत रावत

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|रचनाकार=भगवत रावत
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वे इस पृथ्वी पर
कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर<br>जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर<br>कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं<br>बचाए हुए हैं उसे<br>अपने ही नरक में डूबने से<br>वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं<br>इतने नामालूम कि कोई उनका पता<br>ठीक-ठीक बता नहीं सकता<br><br>उनके अपने नाम हैं लेकिन वे<br>इतने साधारण और इतने आमफहम हैं<br>कि किसी को उनके नाम<br>सही-सही याद नहीं रहते<br><br>उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे<br>एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं<br>कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता<br><br>वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं<br>और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है<br>और सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उन्हें<br>रत्ती भर यह अंदेशा नहीं<br>कि उन्हीं की पीठ पर<br>टिकी हुई यह पुथ्वी।<br/poem>