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तीसरी नही गति मेरी है.
 
 
मैत्री की बड़ी सुखद छाया, शीतल हो जाती है काया,
 
धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
 
हो अलग खड़ा कटवाता है
 
खुद आप नहीं कट जाता है.
 
 
जिस नर की बाह गही मैने, जिस तरु की छाँह गहि मैने,
 
उस पर न वार चलने दूँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा,
 
जीते जी उसे बचाऊँगा,
 
या आप स्वयं कट जाऊँगा,
 
 
मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब उसे तोल सकता है धन?
 
धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
 
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
 
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.