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वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
अहिपाश काटना है मुझको.
संग्राम सिंधु लहराता है, सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है, बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.
अब देर नही कीजै केशव, अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें, संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.
हाँ एक विनय है मधुसूदन, मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए, जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.
साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, सारी संपत्ति मुझे देंगे.
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा, दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.
अच्छा अब चला प्रमाण आर्य, हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
रण मे ही अब दर्शन होंगे, शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें.
रथ से रधेय उतार आया, हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि वीर शत बार धन्य, तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान.
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