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'जनमा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,
 
परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,
 
द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया
 
बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया.
 
 
'और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में,
 
आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग मे.
 
ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था?
 
हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था?
 
 
'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,
 
नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ.
 
मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?
 
खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?
 
 
'और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है.
 
तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?
 
समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,
 
सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?
 
 
'जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,
 
उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का.
 
गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,
 
किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं.
 
 
'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?
 
मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,
 
देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,
 
दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!
 
 
'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,
 
एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है.
 
स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,
 
जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है.
 
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