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आत्मचिंतन.....
लेकर आता है झंझावात
अपराधबोध,अफसोस
घृणा,क्रोध,द्वेष,ईर्ष्याकरुणा,क्षमा.......
निःशब्द अन्तस दर्पण बन जाता है
स्पष्ट दिखाता है
हूबहू प्रतिबिम्ब अपना
मैं चुप हूँ.....
अनुत्तरित प्रश्नों के रेतीले ढेर से
ढूँढ लाती हूँ उत्तर कोई
कि जानती हूँ चुप होना नहीं होता कभी-कभी बेबसी/घृणा/नफरत का द्योतक
स्वीकार्यता में नहीं होता कभी-कभी
कोई भी शोर...
गणितीय प्रमेय नहीं होते प्रेम में
तो जटिल होगी संधियाँ प्रेम की
शीत युद्ध से पूर्व ही ढूँढ ली मैंने
कविता संवादों की.....
तुम मुस्कुराकर थपथपाना पीठ
आश्वस्ति की ऊष्ण हथेली से.....!!!</poem>