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जीवन की महिमा / कबीर

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जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो| मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर - अमर हो जाता है| शरीर रहते -रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना - विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं|
जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता| अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चहियेचाहिए|
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाश विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो| अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा|करेगा।
आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जायेजा| तुम्हारे अंधकाररुपी घर में को काम, क्रोधादि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञानाग्नि से जला डालो|
सत्संग सूप के ही तुल्ये तुल्य है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है| तुम भी गुरु ज्ञान लो, बुराइयों छुओ तक नहीं|
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