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मां (1) / कैलाश पण्डा

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<poem>
ओ माँ ! तू देती
आकार गर्भ में मास पिण्ड से
मैं तो सूक्ष्म कीट बस
तेरे स्तनों से निकली
दुग्ध-धार जीवन का सार
स्वर्ग को क्यों खोजूं भला
राजे-महाराजे
राम-रावण तक
इस धरती पर
पैर नहीं रख पाये तुझ बिन
ओ जन्म से लेकर
सम्पूर्ण विकास तक की यात्राएं
मेरे अन्तः करण को पवित्र करती
ओ माँ !
तेरे चरण कमल का अर्चन
ओ देहदात्री !
तेरे आंचल में खेलूं
शिशु बन करूं स्तनपान
अहा, वह मोक्ष स्वरूपक्षण
क्षणिक क्यों ?
ओ माँ तेरा सात्रिध्य
बैकुण्ठधाम।
</poem>
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