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|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
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<poem>
लाखों वर्ष कोई कम नहीं होते धरती पर
रहते साथ-साथ
अब लेता हूं विदा, मेरे पड़ौसी भाइयो!
अलविदा!
विचरता रहा स्वच्छन्द अब तक
पहाड़ों, घाटियों, जंगलों की
अपनी सल्तनत में लेकिन
तुम्हारी बस्तियों में घुसकर
शायद ही लांघी कभी मर्यादा मैंने
फिर भी जाने-अनजाने
हुई हो कोई भूल-चूक
तो क्षमा करना मनुष्य!
कहा-सुना करना सब माफ
मैं ले रहा हूं अंतिम विदा इस धरती से
तुम्हारी बस्तियां रहें आबाद-मेरे बिना भी
तुम्हारे जंगल रहें आबाद-मेरे बिना भी
तुम्हारी प्राजतियां रहें आबाद-मेरे बिना भी
नहीं, भूला नहीं हूं कुछ भी
इतना कृतघ्न तो नहीं मैं
कैसे भूल जाऊं आखिर,
जग-जननी दुर्गा का वाहन मान कर
मुझको जो मान दिया
परमपिता शिव को ‘बाघाम्बर’ का जो नाम दिया
यहां तक कि
तिरंगे, जन-गण-मन, मोर, कमल...
की गौरवशाली सूची में शामिल कर
दिया ‘राष्ट्रीय’ सम्मान मुझको
हर्गिज नहीं भूल सकता तुम्हारे उपकार
ओ, मनु-अदम के वंशजों!
मेरे लिए
तुमने बनाए अभयारण्य
जहां विचरण कर सके निर्भय
मेरी प्रिय बाघिन
हमारे शावकों के साथ
कि, जहां विचरण कर सकें निर्भय
हमारे हत्यारे
किया जा सके हमारा वध, बे-रोकटोक।
तो, मैं सदा के लिए लुप्त हो जाऊंगा
फिर भी झांकता रहूंगा
अपनी अदम्य दहाड़ के साथ
ट्यूरिज्म डिपार्टमेंट के सुचिक्कण
चित्ताकर्षक पोस्टरों के बीच
लोगों से सुनते हुए
कि, एक समय की बात है
एक बाघ हुआ करता था।

</poem>
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