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{{KKRachna
|रचनाकार=इंदुशेखर तत्पुरुष
|अनुवादक=
|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
हफ्ते में दो बार
क्यों नहीं आता रविवार
सोचते हैं बच्चे।
‘‘कमबख़्तों! आठ बज गये!’’
खीजती है मां सफाई करती
चमकाती हुई फर्श पौंछे से
और सुटक खींच जाते हैं
बच्चे घुसकर पापा के बिस्तर में
करते हैं खुसुर-पुसुर
पापा बिल्कुल निश्चिन्त-मुस्कुराते हैं
पड़े-पड़े बिस्तर पर लेते हुए अंगड़ाई।
थिर हुए पानी-सा शांत है बाथरूम
निस्तब्ध अभी तक
ब्रश, कंघी, टाई, लंच बॉक्स
पड़े हैं निठल्ले से बस्ते
बिखरी किताब-कॉपियां इधर-उधर
जानते हैं बच्चे
नहीं भनभनाएगा
आज भोंपू
स्कूल बस का...
पापा बच्चों के
सचमुच के पापा जैसे लगते हैं
वह नहीं रहेगा आज
जो आता है हर-रोज
आधा बुझा-सा, आधा तना हुआ
एक तंग आदमी पापा की शक्ल में
दफ्तर से।
बहुत भाता है करना धमा-चौकड़ी
फेंकते हुए तकिये एक-दूसरे पर
अभी चिल्लाएगी मां रसोई से
अरे टूट जाएगी रूई
मैली हो जाएगी खोली
अभी तो बदली है चार दिन पहले
‘‘आप भी इन बच्चों में...’’
घुड़काती और अन्दर से खुद की इच्छा को दबाती
कि एक तकिया उठाके जोर से
मार दे बच्चों के पापा के सर पर
वह भी।
एक-एक पत्ती धनिया
चोंट कर साफ करेंगे पापा
लहसुन, अदरक, फैलाकर सारी मिर्चें
छांटते हैं पकी-पकी पीली, थोड़ी लाल
राई, अमचूर, काला नमक
बिखेर कर रख देते हैं मम्मी की
जीम-जमाई रसोई
पापा के हाथ की चटनी
बहुत अच्छी लगती है
मिक्सी में वह स्वाद आ ही नहीं सकता
कहते हैं पापा
रगड़ते हुए लोढा
बाबा के जमाने की सिल पर
सेर भर नाज में
खुटवाई थी दादी ने रामधन कारीगर से।
बेसिन में धोकर हाथ
मम्मी के पल्लू से पौंछना
कभी नहीं भूलते पापा
जैसे बच्चे पापा के हाथ की चटनी का स्वाद
हर रविवार।
</poem>
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|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
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<poem>
हफ्ते में दो बार
क्यों नहीं आता रविवार
सोचते हैं बच्चे।
‘‘कमबख़्तों! आठ बज गये!’’
खीजती है मां सफाई करती
चमकाती हुई फर्श पौंछे से
और सुटक खींच जाते हैं
बच्चे घुसकर पापा के बिस्तर में
करते हैं खुसुर-पुसुर
पापा बिल्कुल निश्चिन्त-मुस्कुराते हैं
पड़े-पड़े बिस्तर पर लेते हुए अंगड़ाई।
थिर हुए पानी-सा शांत है बाथरूम
निस्तब्ध अभी तक
ब्रश, कंघी, टाई, लंच बॉक्स
पड़े हैं निठल्ले से बस्ते
बिखरी किताब-कॉपियां इधर-उधर
जानते हैं बच्चे
नहीं भनभनाएगा
आज भोंपू
स्कूल बस का...
पापा बच्चों के
सचमुच के पापा जैसे लगते हैं
वह नहीं रहेगा आज
जो आता है हर-रोज
आधा बुझा-सा, आधा तना हुआ
एक तंग आदमी पापा की शक्ल में
दफ्तर से।
बहुत भाता है करना धमा-चौकड़ी
फेंकते हुए तकिये एक-दूसरे पर
अभी चिल्लाएगी मां रसोई से
अरे टूट जाएगी रूई
मैली हो जाएगी खोली
अभी तो बदली है चार दिन पहले
‘‘आप भी इन बच्चों में...’’
घुड़काती और अन्दर से खुद की इच्छा को दबाती
कि एक तकिया उठाके जोर से
मार दे बच्चों के पापा के सर पर
वह भी।
एक-एक पत्ती धनिया
चोंट कर साफ करेंगे पापा
लहसुन, अदरक, फैलाकर सारी मिर्चें
छांटते हैं पकी-पकी पीली, थोड़ी लाल
राई, अमचूर, काला नमक
बिखेर कर रख देते हैं मम्मी की
जीम-जमाई रसोई
पापा के हाथ की चटनी
बहुत अच्छी लगती है
मिक्सी में वह स्वाद आ ही नहीं सकता
कहते हैं पापा
रगड़ते हुए लोढा
बाबा के जमाने की सिल पर
सेर भर नाज में
खुटवाई थी दादी ने रामधन कारीगर से।
बेसिन में धोकर हाथ
मम्मी के पल्लू से पौंछना
कभी नहीं भूलते पापा
जैसे बच्चे पापा के हाथ की चटनी का स्वाद
हर रविवार।
</poem>