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|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
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<poem>
मेरे चाहने मात्र से
यदि वरदहस्त उठता तुम्हारा
शीश पर आशीष देता
क्या, तब भी तुम
कहलाते प्रभु?
नहीं, मेरा माथा
वहां हर्गिज नहीं नवेगा
जिसका अपनो कोई वजूद नहीं
जो, खड़ा हो करबद्ध
मस्तकनत
आज्ञा साधने मेरी।
</poem>
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